रूह अफजा, वो नाम जो गर्मियों की तपिश में ठंडक का एहसास देता है, आजकल एक अलग ही वजह से सुर्खियों में है। यह शरबत, जो कभी पुरानी दिल्ली की गलियों में औषधि के रूप में जन्मा, अब विवादों के घेरे में है। आइए, जानते हैं इसकी शुरुआत और आज के हंगामे की पूरी कहानी।
एक शरबत का जन्म
साल 1906, पुरानी दिल्ली की तंग गलियों में हकीम हाफिज अब्दुल मजीद ने यूनानी चिकित्सा के ज्ञान से एक ऐसा शरबत बनाया, जो गर्मी से राहत दे सके। इसे नाम दिया गया 'रूह अफजा', जिसका मतलब है 'रूह को तरोताजा करने वाला'। गुलाब, जड़ी-बूटियों और फलों के मिश्रण से बना यह शरबत जल्द ही लोगों की पसंद बन गया। हकीम साहब की बनाई कंपनी 'हमदर्द' ने इसे 1907 में बाजार में उतारा, और देखते ही देखते यह भारत के घर-घर में पहुंच गया। यह न सिर्फ स्वादिष्ट था, बल्कि लू और थकान से बचाने में भी मददगार था।
बंटवारे का दर्द और नई शुरुआत
समय के साथ रूह अफजा की कहानी और गहरी हुई। 1947 में भारत-पाकिस्तान बंटवारे के दौरान हमदर्द परिवार भी बंट गया। हकीम अब्दुल मजीद के बड़े बेटे हकीम अब्दुल हमीद ने भारत में हमदर्द को संभाला, जबकि छोटे भाई हकीम मुहम्मद सईद पाकिस्तान चले गए। वहां उन्होंने हमदर्द पाकिस्तान की नींव रखी। बाद में, बांग्लादेश बनने पर रूह अफजा वहां भी पहुंचा। आज यह शरबत तीनों देशों में अलग-अलग कंपनियों द्वारा बनाया जाता है, लेकिन इसका स्वाद और विरासत वही है।
हमदर्द की नेकनीयती
हमदर्द का मतलब है 'दुख बांटने वाला'। 1948 में हमदर्द इंडिया एक गैर-लाभकारी ट्रस्ट बन गया, जिसका ज्यादातर मुनाफा शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे सामाजिक कार्यों में जाता है। यही वजह है कि रूह अफजा सिर्फ एक पेय नहीं, बल्कि एक सामाजिक मिशन का हिस्सा भी है। लेकिन इस नेक मकसद के बावजूद, यह शरबत आज विवादों में फंस गया है।
विवाद की चिंगारी
हाल ही में कुछ बयानों ने रूह अफजा को चर्चा का केंद्र बना दिया। दावा किया गया कि इसकी कमाई का इस्तेमाल खास समुदाय के लिए हो रहा है। इन बयानों ने सोशल मीडिया पर तीखी बहस छेड़ दी। कुछ लोग इसे 'शरबत जिहाद' जैसे नामों से जोड़ रहे हैं, जबकि हमदर्द ने स्पष्ट किया कि उनका मुनाफा सामाजिक भलाई के लिए है, न कि किसी खास एजेंडे के लिए। यह विवाद न केवल रूह अफजा की विरासत पर सवाल उठा रहा है, बल्कि समाज में आपसी विश्वास को भी चुनौती दे रहा है।
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