कई वर्षों से यह महसूस किया जा रहा है कि भारत में कविता का स्थान कम होता जा रहा है। हाल ही में 'दि इकॉनोमिस्ट' के एक अंक में यह बात सामने आई कि पहले कवि अपनी रचनाओं के माध्यम से जीवन यापन करते थे। उदाहरण के लिए, लॉर्ड बायरन की 'द कॉर्सेयर' की एक दिन में दस हजार प्रतियां बिकी थीं। लेकिन अब कवि अपनी रचनाओं से नहीं, बल्कि विश्वविद्यालयों में नौकरी और पुरस्कारों से अपनी आजीविका कमाते हैं। इस स्थिति के पीछे एक बड़ा कारण यह है कि पिछले 70-80 वर्षों में कविता की तुक और लय का महत्व कम हो गया है।
कविता की रचना में लय और छंद का अभाव लोगों को इससे दूर कर रहा है। मैथिलीशरण गुप्त की पंक्तियाँ या गोपालदास 'नीरज' की रचनाएँ आज भी लोगों के दिलों में बसी हुई हैं। लेकिन आज का मनुष्य शोर और भाषणों में खो गया है।
भारत की संस्कृति और सभ्यता का आधार कविता है। यह हमारे दिल और दिमाग का हिस्सा है। ऋग्वेद जैसी प्राचीन रचनाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि कविता हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा रही है।
भारत के ऋषियों ने मानवता को कविता दी है। वेदों और उपनिषदों की रचनाएँ काव्यात्मक शैली में हैं। यह काव्य की परंपरा ही है जिसने ज्ञान को जीवंत और स्मरणीय बनाया।
हालांकि, ईस्ट इंडिया कंपनी के आने के बाद कविता का महत्व कम हुआ। शिक्षा प्रणाली में गद्य को प्राथमिकता दी गई, जिससे कविता की रचना में कमी आई।
आधुनिक भारत में कविता की स्थिति चिंताजनक है। अब कवि केवल पुरानी रचनाएँ पढ़ते हैं और नई रचनाएँ लिखने में असमर्थ हैं। इस प्रकार, कविता का स्थान भाषणों और कथाओं ने ले लिया है।
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