पटनाः बिहार की राजनीति में कभी चुनाव प्रचार एक कला और लोक नाट्य शैली जैसा होता था, लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव से पहले पुराने नेता और समर्थक उस विशिष्ट नाटकीयता और हास्यबोध को गायब पा रहे हैं।
बुजुर्ग मतदाता 20वीं सदी के उन नेताओं को याद कर रहे हैं जो अपनी अनोखी शैली, लोकप्रिय नारों और मज़ाकिया व्यंग्यों से मतदाताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे और बड़ी जीत हासिल करते थे, भले ही आज राजनीतिक दलों ने प्रचार के लिए अभिनेता और गायकों को मैदान में उतारा है।
अनोखे चुनावी तरीके और नाटकीयता
पटना शहर के बुजुर्ग मतादाता याद करते हैं कि भाकपा के नेता रामावतार शास्त्री चुनाव से कई महीने पहले ही अपने मतदाताओं के घरों में जाकर भोजन करना शुरू कर देते थे। इस 'व्यक्तिगत संपर्क' ने उन्हें पटना निर्वाचन क्षेत्र से बड़ी जीत दिलाई। बाद में, जनसंघ के रामदेव महतो ने भी यही तरीका अपनाया।
इसी तरह से पूर्व मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा ने 1967 के विधानसभा चुनावों में छात्रों को 'जिगर के टुकड़े' कहकर संगठित किया। वे छात्रों के आंदोलन (1966 में पुलिस गोलीबारी) से तत्कालीन सीएम केबी सहाय से नाराज थे। बुजुर्ग बताते है कि महामाया प्रसाद सिन्हा के भाषण में ड्रामा भी शामिल होता था। वो अपने सार्वजनिक भाषणों में छाती पीटते, कपड़े फाड़ते और रोते थे।
मैदान पर नाटकीयता
बुजुर्ग मतादाता याद करते हैं कि 1972 के चुनाव में जब विरोधी समर्थकों ने 'महामाया प्रसाद मुर्दाबाद' का नारा लगाया, तो महामाया प्रसाद सिन्हा तुरंत घोड़ागाड़ी से उतरे और आंखें बंद करके सड़क पर लेट गए, यह कहते हुए कि उनकी मृत्यु हो गई। वो तभी उठे जब लोग 'महामय प्रसाद ज़िंदाबाद' का नारा लगाए। महामाया प्रसाद सिन्हा ने न केवल 1967 में सीएम सहाय को हराया, बल्कि बिहार में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार भी बनाई थी।
कर्पूरी ठाकुर ज़मींदारों के घर जमीन पर बैठते
समाजवादी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने अपनी असाधारण सादगी से मतदाताओं का दिल जीता। चुनाव प्रचार के दौरान, जब वह बड़े ज़मींदारों के घर जाते थे, तो वह हमेशा जमीन पर बैठते थे। कुर्सी दिए जाने पर वह कहते थे-' मैं आपके सामने कुर्सी पर कैसे बैठ सकता हूँ जब मेरे पूर्वज नहीं बैठे थे।'
लालू प्रसाद ने अपनी नाटकीयता, नकल और हास्य का इस्तेमाल किया
1990 के दशक में, राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने अपनी नाटकीयता, नकल और हास्य का इस्तेमाल किया। उनके लोकप्रिय नारे जैसे 'जब तक समोसे में रहेगा आलू, बिहार में रहेगा लालू' और सड़कों को फिल्म स्टार हेमा मालिनी के गालों जितना चिकना बनाने का वादा आज भी याद किया जाता है।
पुराने लोगों का मानना है कि इस बार के प्रचार में वह हास्य, लोकलुभावन शैली और व्यक्तिगत जुड़ाव की कला कहीं गायब है।
बुजुर्ग मतदाता 20वीं सदी के उन नेताओं को याद कर रहे हैं जो अपनी अनोखी शैली, लोकप्रिय नारों और मज़ाकिया व्यंग्यों से मतदाताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे और बड़ी जीत हासिल करते थे, भले ही आज राजनीतिक दलों ने प्रचार के लिए अभिनेता और गायकों को मैदान में उतारा है।
अनोखे चुनावी तरीके और नाटकीयता
पटना शहर के बुजुर्ग मतादाता याद करते हैं कि भाकपा के नेता रामावतार शास्त्री चुनाव से कई महीने पहले ही अपने मतदाताओं के घरों में जाकर भोजन करना शुरू कर देते थे। इस 'व्यक्तिगत संपर्क' ने उन्हें पटना निर्वाचन क्षेत्र से बड़ी जीत दिलाई। बाद में, जनसंघ के रामदेव महतो ने भी यही तरीका अपनाया।
इसी तरह से पूर्व मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा ने 1967 के विधानसभा चुनावों में छात्रों को 'जिगर के टुकड़े' कहकर संगठित किया। वे छात्रों के आंदोलन (1966 में पुलिस गोलीबारी) से तत्कालीन सीएम केबी सहाय से नाराज थे। बुजुर्ग बताते है कि महामाया प्रसाद सिन्हा के भाषण में ड्रामा भी शामिल होता था। वो अपने सार्वजनिक भाषणों में छाती पीटते, कपड़े फाड़ते और रोते थे।
मैदान पर नाटकीयता
बुजुर्ग मतादाता याद करते हैं कि 1972 के चुनाव में जब विरोधी समर्थकों ने 'महामाया प्रसाद मुर्दाबाद' का नारा लगाया, तो महामाया प्रसाद सिन्हा तुरंत घोड़ागाड़ी से उतरे और आंखें बंद करके सड़क पर लेट गए, यह कहते हुए कि उनकी मृत्यु हो गई। वो तभी उठे जब लोग 'महामय प्रसाद ज़िंदाबाद' का नारा लगाए। महामाया प्रसाद सिन्हा ने न केवल 1967 में सीएम सहाय को हराया, बल्कि बिहार में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार भी बनाई थी।
कर्पूरी ठाकुर ज़मींदारों के घर जमीन पर बैठते
समाजवादी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने अपनी असाधारण सादगी से मतदाताओं का दिल जीता। चुनाव प्रचार के दौरान, जब वह बड़े ज़मींदारों के घर जाते थे, तो वह हमेशा जमीन पर बैठते थे। कुर्सी दिए जाने पर वह कहते थे-' मैं आपके सामने कुर्सी पर कैसे बैठ सकता हूँ जब मेरे पूर्वज नहीं बैठे थे।'
लालू प्रसाद ने अपनी नाटकीयता, नकल और हास्य का इस्तेमाल किया
1990 के दशक में, राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने अपनी नाटकीयता, नकल और हास्य का इस्तेमाल किया। उनके लोकप्रिय नारे जैसे 'जब तक समोसे में रहेगा आलू, बिहार में रहेगा लालू' और सड़कों को फिल्म स्टार हेमा मालिनी के गालों जितना चिकना बनाने का वादा आज भी याद किया जाता है।
पुराने लोगों का मानना है कि इस बार के प्रचार में वह हास्य, लोकलुभावन शैली और व्यक्तिगत जुड़ाव की कला कहीं गायब है।
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