‘जब दांव पर इंसानी जिंदगी लगी हो और उसकी कीमत खून हो, तो मामले को पूरी ईमानदारी से देखा जाना चाहिए।’ सुप्रीम कोर्ट ने हाल में एक आरोपी की मौत की सजा को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की थी। दुर्भाग्य से मुंबई की लोकल ट्रेनों में हुए सीरियल बम ब्लास्ट की जांच में इस भावना का सही से पालन नहीं किया गया। इस मामले में सभी आरोपियों का बरी हो जाना सवाल के साथ चिंता भी पैदा करता है।
दोषी कौन: 11 जुलाई 2006 को सिलसिलेवार ढंग से हुए बम धमाकों में 187 लोगों की मौत हो गई थी, जबकि 824 घायल हुए थे। बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले से 19 साल बाद सवाल वहीं घूमकर आ जाता है कि इतने बड़े नुकसान का दोषी कौन है?
शर्मनाक लापरवाही: हाईकोर्ट में जिस तरह से एक-एक करके सारे सबूतों की धज्जियां उड़ीं, उससे पूरे सिस्टम को लेकर संदेह उठता है। जब इतने अहम मामले में इतनी लचर जांच हुई, तो फिर दूसरे तमाम केस में क्या होता होगा? गवाहों के बयान दर्ज करने से लेकर सबूत जुटाने तक, हर जगह लापरवाही बरती गई। यह भी शर्मनाक है कि आरोपियों को टॉर्चर किया गया।
निचली अदालतों पर सवाल: 12 लोग इतने बरसों तक आतंकी होने का दाग लिए जिल्लत की जिंदगी जीते रहे। जेल में वो लोग थे, लेकिन उनके साथ सजा पूरे परिवार ने भुगती। यह केस निचली अदालतों के कामकाज के तरीकों पर भी बड़ा सवालिया निशान है। सबूतों को लेकर इतने संदेह थे, लेकिन निचली अदालत ने उन पर गौर नहीं किया। और यह पहला मामला नहीं, जहां जांच में खामियों, गवाही में कमी और कमजोर सबूतों के चलते ऊपर की अदालतों में केस खारिज हो गया हो।
सुप्रीम कोर्ट का सुझाव: कलकत्ता हाईकोर्ट ने पिछले हफ्ते तीन लोगों की मौत की सजा रद्द करते हुए उन्हें हत्या के आरोपों से बरी कर दिया था। पिछले ही हफ्ते सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने भी 2011 में हुई दोहरी हत्या और रेप के आरोपी को छोड़ने का आदेश दिया। शीर्ष अदालत ने जांच में गंभीर कमियां गिनाई थीं। इसी दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया था कि झूठे मुकदमों की वजह से जिन्हें लंबा समय जेल में बिताना पड़ा है, उन्हें मुआवजा देने के लिए कानून बनाने पर विचार करना चाहिए।
ताकि भरोसा बना रहे: महाराष्ट्र सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की है। देश उम्मीद करता है कि इस बार तथ्यों को सही ढंग से रखा जाएगा। यह केवल एक केस नहीं, न्याय व्यवस्था पर आम लोगों के यकीन का मामला है।
दोषी कौन: 11 जुलाई 2006 को सिलसिलेवार ढंग से हुए बम धमाकों में 187 लोगों की मौत हो गई थी, जबकि 824 घायल हुए थे। बॉम्बे हाई कोर्ट के फैसले से 19 साल बाद सवाल वहीं घूमकर आ जाता है कि इतने बड़े नुकसान का दोषी कौन है?
शर्मनाक लापरवाही: हाईकोर्ट में जिस तरह से एक-एक करके सारे सबूतों की धज्जियां उड़ीं, उससे पूरे सिस्टम को लेकर संदेह उठता है। जब इतने अहम मामले में इतनी लचर जांच हुई, तो फिर दूसरे तमाम केस में क्या होता होगा? गवाहों के बयान दर्ज करने से लेकर सबूत जुटाने तक, हर जगह लापरवाही बरती गई। यह भी शर्मनाक है कि आरोपियों को टॉर्चर किया गया।
निचली अदालतों पर सवाल: 12 लोग इतने बरसों तक आतंकी होने का दाग लिए जिल्लत की जिंदगी जीते रहे। जेल में वो लोग थे, लेकिन उनके साथ सजा पूरे परिवार ने भुगती। यह केस निचली अदालतों के कामकाज के तरीकों पर भी बड़ा सवालिया निशान है। सबूतों को लेकर इतने संदेह थे, लेकिन निचली अदालत ने उन पर गौर नहीं किया। और यह पहला मामला नहीं, जहां जांच में खामियों, गवाही में कमी और कमजोर सबूतों के चलते ऊपर की अदालतों में केस खारिज हो गया हो।
सुप्रीम कोर्ट का सुझाव: कलकत्ता हाईकोर्ट ने पिछले हफ्ते तीन लोगों की मौत की सजा रद्द करते हुए उन्हें हत्या के आरोपों से बरी कर दिया था। पिछले ही हफ्ते सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने भी 2011 में हुई दोहरी हत्या और रेप के आरोपी को छोड़ने का आदेश दिया। शीर्ष अदालत ने जांच में गंभीर कमियां गिनाई थीं। इसी दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया था कि झूठे मुकदमों की वजह से जिन्हें लंबा समय जेल में बिताना पड़ा है, उन्हें मुआवजा देने के लिए कानून बनाने पर विचार करना चाहिए।
ताकि भरोसा बना रहे: महाराष्ट्र सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की है। देश उम्मीद करता है कि इस बार तथ्यों को सही ढंग से रखा जाएगा। यह केवल एक केस नहीं, न्याय व्यवस्था पर आम लोगों के यकीन का मामला है।
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