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भीकाजी कामा: विदेश में लहराया तिरंगा, गूंजी आजादी की हुंकार

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New Delhi, 12 अगस्त . भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई वीरांगनाओं ने अपने साहस और बलिदान से इतिहास के पन्नों को स्वर्णिम बनाया. इनमें भीकाजी कामा का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है. उन्होंने न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी स्वतंत्रता की अलख जगाई और भारतीय तिरंगे को अंतरराष्ट्रीय मंच पर गर्व के साथ फहराया.

भीकाजी कामा का जन्म 24 सितंबर, 1861 को Mumbai के एक समृद्ध पारसी परिवार में हुआ था. उनके पिता, सोराबजी फ्रामजी पटेल, एक प्रसिद्ध व्यापारी थे. धनी परिवार में जन्मी भीकाजी को बचपन से ही शिक्षा और संस्कृति का बेहतर वातावरण मिला. उन्होंने फ्रेंच और अंग्रेजी भाषा में महारत हासिल की, जो आगे चलकर उनके क्रांतिकारी कार्यों में बेहद उपयोगी साबित हुई.

उनकी शादी रुस्तम कामा से हुई, जो एक धनी वकील थे, लेकिन वैचारिक मतभेदों के कारण यह रिश्ता ज्यादा सफल नहीं रहा.

भीकाजी का क्रांतिकारी जीवन तब शुरू हुआ, जब वे 1896 में प्लेग महामारी के दौरान पीड़ितों की सेवा में जुट गईं. इस दौरान अंग्रेजी शासन की क्रूरता और भारतीयों के प्रति उनके भेदभाव को देखकर उनका मन विद्रोह से भर उठा. 1905 में वे स्वास्थ्य कारणों से लंदन चली गईं, लेकिन वहां उनकी मुलाकात दादाभाई नौरोजी और श्यामजी कृष्ण वर्मा जैसे क्रांतिकारियों से हुई, जिन्होंने उनकी सोच को और निखारा. श्यामजी के ‘इंडिया हाउस’ में वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गईं.

भीकाजी कामा का सबसे ऐतिहासिक योगदान 22 अगस्त, 1907 को जर्मनी के स्टटगार्ट में हुआ, जहां उन्होंने अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में भारत का तिरंगा झंडा फहराया. इस झंडे में हरा, केसरिया और लाल रंग था.

अपने जोशीले भाषण में उन्होंने ब्रिटिश शासन की बर्बरता का खुलासा किया और भारत की आजादी की मांग को विश्व मंच पर रखा. यह वह दौर था जब भारत में स्वतंत्रता संग्राम अभी अपनी प्रारंभिक अवस्था में था और भीकाजी ने विदेशों में इसे एक नई आवाज दी.

वे ‘बंदे मातरम’ नामक पत्रिका की संपादक भी रहीं, जो भारतीय स्वतंत्रता के विचारों को फैलाने का एक सशक्त माध्यम बनी. उनके क्रांतिकारी लेख और भाषण ब्रिटिश सरकार के लिए खतरा बन गए, जिसके कारण उनकी गिरफ्तारी के आदेश जारी हुए. लेकिन भीकाजी ने हार नहीं मानी. वे पेरिस चली गईं और वहां से क्रांतिकारी गतिविधियों को संचालित करती रहीं.

1935 में स्वास्थ्य खराब होने के कारण वे भारत लौटीं और 13 अगस्त, 1936 को उनका निधन हो गया. भीकाजी कामा ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी, बल्कि महिलाओं को यह दिखाया कि वे भी देश की आजादी के लिए पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर लड़ सकती हैं.

एकेएस/डीएससी

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